रात !

मैं रात का इंतज़ार करता था,

तुझसे ख्वाबों में मिलने के लिए।

तेरे साथ अपने दिल की,

हसीं कहानियां बुनने के लिए।

मेरे अँधेरे, खामोश कमरे में भी मैं तनहा ना था।

तेरी यादों ने हर तरफ, मुझे घेर जो रखा था।

अब तो नींदों में भी मैं मुस्कुराने लगा हूँ।

मन ही मन ना जाने क्या -क्या सोचने लगा हूँ।

तुझसे दूरी का कोई एहसास ही नहीं है,

जबकी तू मेरे पास भी नहीं है।

ना मिले तू अब,

तो कोई गम भी नहीं है।

क्योंकि रात तो आनी है,

और मेरे ख्वाबों पर किसी का हक़ नहीं है।

10 thoughts on “रात !

  1. Aham aham
    It is like someone narrating his trye story .
    Loved the way u narrated every words and sentences . End of the poem is fantastic.
    Keep writing madam and keep smiling 🙂

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